वांछित मन्त्र चुनें

पि॒तुर्न पु॒त्रः सुभृ॑तो दुरो॒ण आ दे॒वाँ ए॑तु॒ प्र णो॑ ह॒विः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pitur na putraḥ subhṛto duroṇa ā devām̐ etu pra ṇo haviḥ ||

पद पाठ

पि॒तुः । न । पु॒त्रः । सुऽभृ॑तः । दु॒रो॒णे । आ । दे॒वान् । ए॒तु॒ । प्र । नः॒ । ह॒विः ॥ ८.१९.२७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:27 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:34» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:27


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (न) जैसे वृद्धावस्था में (पुत्रः) सुयोग्य पुत्र (पितुः) पिता का (सुभृतः) अच्छे प्रकार भरण-पोषण करता है, तद्वत् वह परमात्मा (दुरोणे) हम लोगों के गृह में भरण-पोषण कर्त्ता बनकर (नः) हमारे (देवान्) क्रीडाशील पुत्रादिकों के (आ) लिये (हविः) हविष्यान्न की (प्र+एतु) वृद्धि करें ॥२७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! प्रथम तुम अपने अन्तःकरण को शुद्ध करो और जगत् में हिंसा परद्रोहादि दुष्टकर्मों से सर्वथा निवृत्त हो जाओ। तब वह परमदेव तुम्हारे हृदय और गृह में वासकर शुभ मार्ग की ओर ले जावेगा ॥२७॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दुरोणे) यागगृह में (पितुः, पुत्रः, न) पिता से पुत्र की नाईं (भृतः) सेवित परमात्मा (नः) हमारे (देवान्) दिव्यगुणसम्पन्न विद्वानों के प्रति (हविः) अन्नादिक भोग्य पदार्थ (प्रैतु) प्राप्त कराये ॥२७॥
भावार्थभाषाः - पुत्रकर्तृक पिता का सेवन व्यभिचारी होता है, इसलिये इस मन्त्र में पितृकर्तृक पुत्र के सेवन से उपमा दी गई है, जिसका तात्पर्य्य यह है कि यद्यपि परमात्मा सब प्राणियों का परम पिता है, पुत्र नहीं, तो भी मन्त्र में “पुत्र की नाईं सेवन किया गया” यह विशेषण उपमार्थ इसलिये दिया है कि पिता पुत्र को प्राण से भी प्रिय मानकर सेवन करता है और पुत्र का सेवन पिता में व्यभिचरित देखा जाता है अर्थात् प्राणों से प्रिय परमात्मा, जो हमारा प्रेमपात्र तथा सेवनीय इष्टदेव है, वह हमको योग्य पदार्थ प्राप्त कराये, जिससे हम पुष्ट होकर सदैव प्रजाहितकारक कार्य्यों में प्रवृत्त रहें ॥२७॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - वृद्धावस्थायाम्। न=यथा। पुत्रः पितुः सुभृतः=शोभनभरणकर्त्ता भवति। तथैव परमात्मा। दुरोणे=अस्माकं गृहे। सुभृतः=सुभर्त्ता भूत्वा। नोऽस्माकम्। देवान्=क्रीडाशीलान् पुत्रादीन्। आ=अभिलक्ष्य। हविर्हविष्यान्नम्। प्रेतु=प्रापयतु=वर्धयतु ॥२७॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दुरोणे) यज्ञगृहे (पितुः, पुत्रः, न) पित्रा पुत्र इव (भृतः) सेवितः परमात्मा (नः) अस्माकम् (देवान्) दिव्यगुणवतो जनान् प्रति (हविः) अन्नादिकम् (प्रैतु) प्रगमयतु। पुत्रकर्तृकं पितृसेवनं व्यभिचारि इति पितृकर्तृकपुत्रसेवनेनोपमिते मन्त्रे ॥२७॥